Punjab English Sunday, 28 April 2024 🕑
BREAKING
कांग्रेस मुख्यालय के बाहर भाजपा महिला मोर्चा का प्रदर्शन विजीलैंस ब्यूरो ने बीडीपीओ को 30 हजार रुपये रिश्वत लेते हुए किया गिरफ्तार आम आदमी पार्टी 16 अप्रैल को लुधियाना और जालंधर के लिए उम्मीदवारों की घोषणा करेगी: सीएम भगवंत मान 50 हजार रुपये की रिश्वत लेता एस.एम.ओ.विजीलैंस ब्यूरो द्वारा काबू विजीलैंस कर्मचारियों के नाम पर 2,50,000 रुपए रिश्वत लेने वाले दो आम व्यक्ति विजीलैंस ब्यूरो द्वारा गिरफ़्तार 2000 रुपए रिश्वत लेते हुये पटवारी विजीलैंस ब्यूरो द्वारा रंगे हाथों काबू राजस्व पटवारी 34.70 लाख रुपये की रिश्वत लेने के दोष में विजीलेंस ब्यूरो द्वारा गिरफ्तार विजीलेंस ब्यूरो ने हैड मुंशी को 30 हजार रुपये रिश्वत लेते हुए किया गिरफ्तार केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने आज महाराष्ट्र के मुंबई में IGF Annual Investment Summit – NXT10 को किया संबोधित विजीलेंस ब्यूरो ने पीएसपीसीएल के एसडीओ, आरए को 30,000 रुपये रिश्वत लेते हुए पकड़ा

ਸਾਹਿਤ

More News

बाल साहित्य : कुछ मन की बातें : प्रकाश मनु

Updated on Friday, March 31, 2023 16:47 PM IST

आज इस आनंद और गौरव के पर्व पर मुझे कुछ कहने के लिए बुलाया गया, इसके लिए अकादेमी का बहुत-बहुत आभार। बाल साहित्य पर कोई बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं कहने जा रहा। कुछ थोड़ी सी मन की बातें कहूँ, यही सोचकर आया हूँ। पर इधर बोलने का अभ्यास कुछ छूट सा गया। तो थोड़े से शब्द मैं लिखकर लाया हूँ। शायद इस तरह मैं अपनी बात कुछ अच्छे ढंग से कह पाऊँगा।
इधर बाल साहित्य की संगोष्ठियों और समारोहों में ज्यादा नहीं जा पाता। पर जिन दिनों जाता था, और बच्चों के बीच कहानी, कविताएँ सुनाने और उनसे बतियाने का अवसर मिलता था, तब के कुछ अनुभव हैं, जिन्हें मैं भूल नहीं पाया। ऐसा ही एक छोटा सा प्रसंग है। मैंने बच्चों को अपनी पसंद की कुछ कहानियाँ सुनाई थीं और बच्चों ने उनका खूब आनंद लिया था। बाद में बच्चों से खुलकर बातें हो रही थीं, तो बहुत बच्चों ने उन कहानियों और उनके पात्रों के बारे में बड़े दिलचस्प सवाल पूछे। उनका जवाब देने में मुझे भी आनंद आ रहा था। किसी कहानी को सुनकर बच्चे के मन में कैसे-कैसे कौतुक भरे सवाल आ सकते हैं, यह जानकर बहुत अच्छा लग रहा था।
तभी एक छोटा सा बच्चा खड़ा हुआ और उसने सवाल पूछा। पर यह सवाल कहानी के बारे में नहीं था और कुछ ऐसा था कि एक क्षण के लिए तो मैं कुछ अचकचा ही गया। उसने पूछा, “मनु जी, बाल साहित्य से क्या फायदा? क्यों हम बाल कविता, कहानियाँ पढ़ें?”(MOREPIC1)
अब इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है? थोड़ी देर तो मुझे कुछ सूझा ही नहीं। फिर एकाएक फिराक साहब का एक शेर मन में गूँजा। उसे बच्चे को तो नहीं सुना सकता था। पर मैंने खुद को सुनाया। वही आपको भी सुना देता हूँ—
वो पूछते हैं कि इश्क से क्या फायदा,
मैं पूछता हूँ, फायदे से क्या फायदा?
यह शायद उन सभी को जवाब है, जो साहित्य और कलाओं में फायदा तलाशना चाहते हैं। पर मैंने कहा न, उस छोटे बच्चे को यह नहीं सुनाया जा सकता था। उसे शायद समझ में भी न आ पाता। पर फिराक ने मेरा रास्ता आसान कर दिया। मैंने बच्चे को समझाया कि दुनिया की सारी चीजें केवल फायदे के लिए नहीं होतीं। और अगर फायदे के लिए होतीं, तो यह दुनिया बड़ी खराब दुनिया होती। बड़ी नीरस और असुंदर होती। और अगर केवल फायदा ही देखें, तो भला भगतसिंह क्यों देश की आजादी की खातिर फाँसी के तख्ते पर झूल गए? चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपनी जान दे दी। और अगर फायदा ही देखें तो कोई माँ अपनी संतान के लिए इतना कष्ट, इतनी तकलीफें क्यों झेलती है? क्या फायदे के लिए?
इस दुनिया में बहुत कुछ है, जो केवल फायदे के लिए नहीं है। इनमें बहुत सी चीजें हम अपने आनंद के लिए करते हैं। बहुत सी सच्चाई की राह पर चलने की जिद के लिए, या कि लोगों की भलाई के लिए, अपनी आन-बान के लिए, देश की शान के लिए...और, और भी बहुत सी चीजों के लिए। तो बाल साहित्य भी कुछ ऐसी चीज है, जिसे फायदे के तराजू पर नहीं तोला जा सकता। बच्चों को अपने लिए लिखी चीजों से आनंद मिलता है, तो यह भी कोई छोटी बात नहीं है। यों इसके साथ ही कई बार उन्हें अपनी छोटी-बड़ी उलझनों का हल मिल जाता है, आगे की राह सूझ जाती है।
फिर अगर फायदा ही देखना है तो बाल साहित्य बच्चे को एक अच्छा और संवेदनशील इनसान बनाता है। लिहाजा बड़ा होकर अगर वह डाक्टर बनेगा तो ऐसा संवेदनशील डाक्टर बनेगा जो किसी गरीब और असहाय का दर्द भी समझ पाएगा। अगर इंजीनियर बना तो अच्छा इंजीनियर बनेगा जो थोड़े से लालच के लिए घटिया सामग्री का इस्तेमाल नहीं करेगा। उसके बनाए स्कूल हों, अस्पताल या पुल, वे बात की बात में भरभराकर नहीं गिर जाएँगे।...देश में अगर ऐसे इनसान होंगे, तो देश स्वाभिमान से तनकर खड़ा होगा। उसका भविष्य उज्ज्वल होगा। बाल साहित्य से अगर यह फायदा है तो मैं समझता हूँ, कोई छोटा फायदा तो यह नहीं है।
पर यह दीगर बात है कि बाल साहित्य से इतना कुछ होता है, हो सकता है। पहली बात तो फिर भी वही है कि बाल साहित्य मन को आनंदित करता है। बच्चे आनंद के लिए उसे पढ़ते हैं और पढ़कर खुशी से उनके चेहरे चमकने लगते हैं।
*
यहीं मुझे कन्हैयालाल मत्त जी की एक बात याद आती है। बाल साहित्य के पुराने कवियों में मत्त जी का बड़ा नाम है। एक बार मैं उनसे मिलने गया तो उनसे थोड़ी सी बातें हुईं। उनमें एक बात मैं आज तक नहीं भूल पाया। मैंने उनसे पूछा, “मत्त जी, आपके विचार से अच्छी बाल कविता कैसी होती है?” मत जी ने मेरी ओर देखा। मुसकराए, फिर बोले, “मनु जी, मैं तो उसी को अच्छी बाल कविता मानता हूँ, जिसे पढ़कर या सुनकर बच्चे के मन की कली खिल जाए।”
पता नहीं, उनके शब्दों में कैसा जादू था कि मैं जैसे बँधा सा रह गया। लगा, कितने मामूली शब्दों में कितनी बड़ी बात कह दी मत्त जी ने। आप बच्चों के लिए लिखी कविता में कितना ही बड़े से बड़ा विचार क्यों न ले आएँ, पर अगर वह बच्चों को आनंदित नहीं करती, तो वह और चाहे कुछ भी क्यों न हो, अच्छी बाल कविता नहीं हो सकती। और यह बात केवल बाल कविता के लिए क्यों? बाल कहानी या उपन्यास के लिए क्यों नहीं?...अगर कोई कहानी बच्चों को आनंदित नहीं करती तो वह अच्छी बाल कहानी नहीं हो सकती। बाल उपन्यास की भी यही शर्त है।
मैं समझता हूँ, इसे फैलाएँ तो साहित्य बच्चों का हो या बड़ों का, और साथ ही दुनिया की जितनी भी कलाएँ हैं, सब आसानी से समझ में आने लगती हैं।(MOREPIC1)
*
और केवल साहित्य और कलाएँ ही क्यों? मुझे हजारीप्रसाद दिवेदी याद आते हैं। उनका उपन्यास, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’। उपन्यास में एक जगह भट्टिनी बाणभट्ट से कहती है, “भट्ट, यह सृष्टि आनंद से जन्म लेती है और अंत में आनंद में ही इसका पर्यवसान होता है। भला आनंद के सिवा इसका और क्या निमित्त हो सकता है?” शब्द कुछ और हो सकते हैं, पर आशय यही है।
मुझे लगता है, जीवन हो साहित्य या कलाएँ, सबका मर्म भट्टिनी की इस एक बात में है। और बाल साहित्य को तो इसके बगैर समझा ही नहीं जा सकता।
समूचे बाल साहित्य की यह कसौटी है कि अगर वह बच्चे को आनंदित नहीं करता, तो वह बाल साहित्य नहीं है। यही कारण है कि एक अच्छा बालगीत बार-बार बच्चे के होठों पर नाचता, फुरफुराता है। एक अच्छी कहानी बार-बार उसकी स्मृतियों में आकर सुकून देती है। और हर बार एक अच्छे दोस्त की तरह गरमजोशी से उसका हाथ पकड़कर अपने साथ एक अनोखी यात्रा पर ले जाती है। और एक अच्छे उपन्यास से उसकी दोस्ती होती है तो वह जिंदगी भर चलती है।
*
बाल साहित्यकार के बारे में एक बड़ी ही विनोद भरी उक्ति कही जाती है। शायद आप लोगों ने भी सुनी हो। और उसमें दो लाइनों में बाल साहित्यकार की परिभाषा भी है, कि बाल साहित्यकार वह लेखक है, जिसके पाठक तो बड़े होते जाते हैं, पर वह खुद कभी बड़ा नहीं होता। हमेशा बच्चा ही बना रहता है।
पर कई बार मैं सोचता हूँ, क्या बच्चा बने रहने से बड़ी भी कोई नेमत होती है। मेरे बड़े प्यारे मित्र और बड़े अच्छे बाल साहित्यकार देवेंद्र कुमार का कहना है कि मैं हमेशा अपने बचपन का हाथ कसकर पकड़े रहता हूँ कि कहीं वह छूट न जाए! पर मैं सोचता हूँ, क्या हम सभी जो बच्चों के लिए लिखते हैं, अपने बचपन का हाथ कसकर नहीं पकड़े रहते। और अगर यह हाथ छूट गया तो क्या सच में हम बच्चों के लिए लिख पाएँगे? शायद इसीलिए बच्चों के लिए लिखना हो तो आपको बच्चा बनना होता है। बगैर बच्चा बने आप उनके लिए जो भी लिखेंगे, वह नकली होगा, ऊपर से ओढ़ा हुआ। कम से कम अच्छा बाल साहित्य तो वह नहीं हो सकता।
*
ईश्वर है या नहीं, इस पर बहुत लोग बहुत बातें कहते हैं। पर याद पड़ता है, मैंने सबसे पहले ईश्वर अपनी माँ की आँखों में देखा था। मैं बहुत छोटा था। स्कूल से आकर खुशी से छलछलाते हुए अकसर माँ को बताया करता कि माँ, माँ, मेरी किताबों में ऐसा लिखा है, स्कूल में आज मास्टर जी ने मुझे यह बात बताई।...सुनकर माँ की भोली आँखों में एक चमक आ जाती। वे बड़ी उत्सुकता और हैरानी से भरकर कहतीं, “हच्छा...!”
“हच्छा...!” मेरी पंजाबी भाषिणी माँ अच्छा नहीं बोल सकती थीं। अच्छा को वे बोलतीं, हच्छा। पर हच्छा कहते हुए उनकी आँखों में इतना भोलापन होता था, जैसे वे मुझसे भी छोटी एक बच्ची बन गई हों। और दुनिया की हर नई चीज के लिए उनके मन में यही उत्सुकता, और यही भोली जिज्ञासा होती। मैं छोटा ही था, पर अपनी माँ की आँखों में मुझे उस समय ईश्वर दिखाई देता।
या फिर ईश्वर मुझे अपने खेल में लगे उस आनंदमग्न बच्चे में दिखाई देता है, जो सारी दुनिया को भूलकर रेत या मिट्टी में घरोंदा बना रहा है। उसके हाथ-पैर मिट्टी में सने हैं। पर जब वह अपने खेल के आनंद में डूबा अचानक हँसता है, तो मुझे उसकी भोली निश्छल हँसी में ईश्वर दिखाई पड़ता है।
यों मुझे लगता है, ईश्वर अगर है तो वह बच्चे में है या फिर उन इनसानों में है, जिन्होंने अपना भोलापन या थोड़ी सरलता बचा रखी है। कि जिन्होंने अपने बचपन का हाथ कसकर पकड़ा हुआ है, और जो अपने ढंग से इस दुनिया को थोड़ा सा और अच्छा, थोड़ा सा और सुंदर बना रहे हैं!
जब मैं थोड़ा सा और अच्छा, थोड़ा सा और सुंदर कहता हूँ, तो मेरे सामने फिर से एक बाल साहित्यकार का चेहरा आ जाता है। वह अपनी रचनाओं से यही, बिल्कुल यही तो करता है। वह बच्चों के लिए सिर्फ लिखता नहीं है, बल्कि अपने निराले और लाजवाब ढंग से इस दुनिया को थोड़ा सा और अच्छा, थोड़ा सा और सुंदर भी बनाता है।...एक बाल साहित्यकार का असली काम ही शायद यही है, जो उसे बच्चों के लिए लिखते हुए भी एक बड़ा और ऊँचे पाये का साहित्यकार बनाता है।
*
इसे अपने तईं सोचूँ, तो बड़ों के लिए भी मैंने बहुत लिखा। कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास सभी कुछ। लिखा तो सब कुछ मन से ही, और लिखने का रचनात्मक सुख, संतोष, तृप्ति भी बहुत मिली। पर बच्चों के लिए लिखने बैठता हूँ, तो लगता है, मेरी आत्मा थोड़ी और निर्मल हो गई है, और मेरे भीतर कुछ उजाला सा हो गया। लिखते-लिखते पता नहीं कब होंठों पर हलकी मुसकराहट आ जाती है, पता नहीं कब एक मीठी चुहल और शरारत सी, और फिर पता नहीं कब मैं अकेले में ही खिलखिलाकर हँस पड़ता हूँ। सुनीता आती है, धीरे से कमरे में झाँकती है और फिर चली जाती हैं। उसे पता चल जाता है, मैं बच्चों के साथ खेल और क्रीड़ा में लगा हुआ हूँ।
बच्चों के लिए लिखना असल में बच्चों के साथ खेलना है, खेल-खेल में एक तरह की बतकही करना है। इसके बगैर आप जो लिखेंगे, उसमें रस नहीं होगा, आनंद नहीं होगा, और रस और आनंद न हो, तो जो आप लिखेंगे, वह बाल साहित्य तो नहीं हो सकता कुछ और ही होगा। अगर आप बच्चों को थोड़ी खुशी नहीं दे सकते, तो आप बाल साहित्यकार हो नहीं सकते। बाल साहित्यकार हर स्थिति में बच्चों के चेहरे पर थोड़ी सी खुशी, थोड़ी मुसकराहट ले आता है। इसीलिए जब वह बच्चों के लिए लिखता है तो सिर्फ लिखता ही नहीं है, बल्कि ईश्वर के अधूरे काम को भी पूरा कर रहा होता है।
*
इस बात को बहुत से साहित्यकारों ने महसूस किया और लिखा भी कि बच्चा होना क्या है और बच्चे से प्यार करने के क्या मानी हैं। मैं पहले एक पुराने कवि रमापति शुक्ल की बात कहता हूँ, जो बच्चों की स्वतंत्रता के बहुत बड़े हामी हैं। अपनी एक कविता में वे बच्चे को झिड़कने वाली सारी दुनिया की डाँट-फटकार, क्रोध, घूरना वगैरह-वगैरह को इस दुनिया से बाहर कर देना चाहते हैं। आठ पंक्तियों की एक छोटी सी कविता है यह, पर बच्चे पर लिखी गई दुनिया की सबसे महान कविताओं में इसका शुमार होना चाहिए। चलिए, यह पूरी कविता मैं सुना ही देता हूँ—
खूब बड़ा सा अगर कहीं संदूक एक मैं पा जाता,
जिसमें दुनिया भर का चिढ़ना, गुस्सा आदि समा जाता।
तो मैं सबका क्रोध, घूरना, डाँट और फटकार सभी,
छीन-छीनकर भरता उसमें, पाता जिसको जहाँ जभी।
तब ताला मजबूत लगाकर उसे बंद कर देता मैं,
किसी कहानी के दानव को बुला, कुली कर लेता मैं।
दुनिया के सबसे गहरे सागर में उसे डुबा आता,
तब न किसी बच्चे को कोई कभी डाँटता, धमकाता।
भला बच्चों का ऐसा प्यारा दोस्त और उनकी आजादी का इतना बड़ा समर्थक आपको और कहाँ मिलेगा? यह रमाकांत शुक्ल ही सोच सकते थे कि बच्चों को घूरने वाली निगाहें और सारी डाँट-फटकार एक संदूक में बंद करके उसे समंदर में बहा दिया जाए, तभी यह दुनिया सुंदर बन सकती है। बच्चों की ‘मुक्ति’ के बगैर दुनिया की मुक्ति संभव नहीं!
और कोई बच्चा होता कैसा है? उसका मन कैसा होता है, उसके मन के अंदर की दुनिया कैसी होती है, इसे अगर आप और भी करीब से जानना और महसूस करना चाहते हैं, तो आइए, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के पास चलते हैं। उनकी कई बाल कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें बच्चे के मन का ऐसा कौतुक है कि उन्हें पढ़ते हुए मानो हम फिर से बच्चे बन जाते हैं। उनकी ऐसी ही एक कविता है, ‘राजा का महल’। इसे पढ़ते हुए अपने बहुत सारे अनोखे राज या रहस्यों वाला बच्चा एकाएक हमारी आँखों के आगे आ खड़ा होता है। जरा देखें तो, माँ से उसकी कैसी बातें होती हैं—
नहीं किसी को पता, कहाँ मेरे राजा का राजमहल।
अगर जानते लोग, महल यह टिक पाता क्या एक क्षण?
इसकी दीवारें चाँदी की, छत सोने की धात की,
पैड़ी-पैड़ी सुंदर सीढ़ी उजले हाथी दाँत की।...
महल कहाँ मेरे राजा का, तू सुन ले माँ कान में,
छत के पास जहाँ तुलसी का चौरा बना मकान में।
जाहिर है, यह बात बच्चा माँ को ही बता पाता है और वह भी कान में। इसलिए कि माँ उसकी प्यारी दोस्त है। उसकी राजदार भी है। वही जान सकती है कि ऊपर तुलसी चौरे के पास जो कुछ अटरम-पटरम सा पड़ा है, वही मेरे बेटे का राजमहल है, जिसकी छत सोने की है, और सीढ़ियाँ हाथी दाँत की, और न जाने क्या-क्या। कोई बड़ा और ज्यादा समझदार आदमी उसे देखेगा तो उसे लगेगा कि अरे, यह क्या कूड़ा-कबाड़ सा है। पर माँ जो बच्चे की आँखों से ही उसे देखती है, वह समझ जाती है कि अहा, मेरे बच्चे का यह कैसा प्यारा राजमहल है!
असल में बच्चे के लिए आप लिखते हैं तो बच्चे की नजर से ही दुनिया को देखना आना चाहिए। और जब आप बच्चे की नजर से देखते हैं तो चमत्कार हो जाता है। तब आपको वो-वो नजर आने लगता है, जो पहले कभी दिखाई ही नहीं हुआ।
हमारे यहाँ दादी-नानी की कहानियों की पुरानी परंपरा है, जिसका रस-आनंद हम सबने लिया है। बच्चों से उनका गहरा नाता था। शायद इसीलिए उनसे बड़ा किस्सागो कोई और हो नहीं सकता। मुझे लगता है, आज के बाल साहित्यकार भी नए जमाने की दादी-नानियाँ ही हैं। तभी वे ऐसा लिख पाते हैं, जो बच्चे को मुग्ध करता है, और हमेशा के लिए वह उसे अपने दिल में बसा लेता है। कम से कम आज के बाल साहित्यकार का आदर्श तो यही है।
*
मुझे यह देखकर प्रसन्नता होती है कि आज के बाल साहित्य में जो श्रेष्ठ है और रचनात्मक है, उसे रेखांकित करने में साहित्य अकादेमी और उसके बाल साहित्य पुरस्कारों का बड़ा योगदान है। अकादेमी ने न सिर्फ बाल साहित्य की गरिमा को पहचाना है, बल्कि उसे उचित सम्मान भी दिया है। ऐसे ही हमारे विश्वविद्यालयों और साहित्य के बड़े आलोचकों का ध्यान भी बाल साहित्य की ओर गया है। यह सचमुच खुशी की बात है। मुझे ‘नंदन’ के संपादक जयप्रकाश भारती जी की बात याद आती है कि इक्कीसवीं सदी बालक और बाल साहित्य की है। आज हम इसे अपनी आँखों के आगे सच होते देख रहे हैं।
अंत में मैं एक बार फिर आज के पुरस्कृत साहित्यकारों का हृदय से अभिनंदन करता हूँ, जो अपने-अपने ढंग से इस दुनिया को थोड़ा और अच्छा, थोड़ा और सुंदर बना रहे हैं। आप सबने मेरी बातों को इतने ध्यान से सुना, इसलिए आप सभी का 

(14 नवंबर 2022 को साहित्य अकादेमी के बाल साहित्य पुरस्कार अर्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में दिया गया व्याख्यान)

Have something to say? Post your comment
X